70+ सर्वश्रेष्ठ Kabir ke dohe | कबीर के दोहे हिंदी में अर्थ

Kabir ke dohe – कबीरदास जी जाने-माने साधक भक्ति कवि और समाज सुधारक थे उन्होंने विभिन्न काव्य ग्रंथों की रचना की यह हिंदी साहित्य के भक्ति काल के एकमात्र कवि थे इनके द्वारा लिखे गए दोहे और कविताएं आज भी बेहद प्रसिद्ध हैं उन्होंने दोहे और कविताओं के माध्यम से समाज सर्वश्रेष्ठ सुधार एवं ईश्वर भक्ति का समर्थन किया

इन्होंने अपना सारा जीवन भक्ति और समाज सुधार के ऊपर लगा दिया जिन्होंने अपने जीवन काल में 5000 से ज्यादा कविता और काव्य की रचना की,

इनके गुरु रामानंद थे जिन से प्रभावित होकर उन्होंने मुस्लिम धर्म छोड़कर हिंदू धर्म अपना लिया था तथा आज इस आर्टिकल में हम कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे के बारे में जानेंगे

Kabir ke dohe

बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोई जो दिल खोजा आपना मुझसे बुरा न कोई

मैं समाज में बुराई खोजने निकला तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला लेकिन मैंने जब अपने अंदर झांका तो मुझसे ज्यादा बुरा और कोई नहीं था

पोथी पोथी के जग मुआ पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय

जाने कितने सारे पुस्तकें पढ़ कर भी लोग मृत्यु द्वार पर पहुंच गए हैं लेकिन विद्वान नहीं बन पाया है लेकिन प्रेम के ढाई अक्षर से मनुष्य विद्वान बन जाता है

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप समाए सार सार के गही रहे थोथा देई उड़ाय

संसार में ऐसे महापुरुषों की जरूरत है जो सुख के समान हो, जो कि सार्थक को बचा ले और निरर्थक को हटा दें

धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आए फल होय

अपने आप को धीरज में रखना बहुत जरूरी है जैसा कि माली पेड़ को सौ घड़ा सस्ता है लेकिन फल तो ऋतु पर ही आते हैं

माला फेरत जुग भया फिरा न मन का फेर। कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर

कोई भी व्यक्ति लंबे समय तक माला लेकर घूमता है या फिरता है फिर भी उसके मन का भाव और उसका मन शांत नहीं होता जिसको लेकर कबीरदास जी कहते हैं कि वह हाथ में लिए मोती को फिरने की जगह मन के मोतियों को फेरे या बदले

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान|

ज्ञानी व्यक्ति के ज्ञान को पूछना चाहिए ना की उसकी जाति को जिस प्रकार तलवार का मोल होता है ना कि मयान का

कागत लिखै सो कागदी, को व्यहाारि जीव आतम द्रिष्टि कहां लिखै , जित देखो तित पीव।

अर्थ- कागज में लिखा शास्त्रों की बात महज दस्तावेज है । वह जीव का व्यवहारिक अनुभव नही है । आत्म दृष्टि से प्राप्त व्यक्तिगत अनुभव कहीं लिखा नहीं रहता है । हम तो जहाॅ भी देखते है अपने प्यारे परमात्मा को ही पाते हैं।

कहा सिखापना देत हो, समुझि देख मन माहि सबै हरफ है द्वात मह, द्वात ना हरफन माहि।

अर्थ- मैं कितनी शिक्षा देता रहूँ। स्वयं अपने मन में समझों। सभी अक्षर दावात में है पर दावात अक्षर में नहीं है। यह संसार परमात्मा में स्थित है पर परमात्मा इस सृष्टि से भी बाहर तक असीम है।


ज्ञान भक्ति वैराग्य सुख पीव ब्रह्म लौ ध़ाये आतम अनुभव सेज सुख, तहन ना दूजा जाये।

ज्ञान,भक्ति,वैराग्य का सुख जल्दी से तेज गति से भगवान तक पहुॅंचाता है। पर आत्मानुभव आत्मा और परमात्मा का मेल कराता है। जहाँ अन्य कोई प्रवेश नहीं कर सकता है।

ताको लक्षण को कहै, जाको अनुभव ज्ञान साध असाध ना देखिये, क्यों करि करुन बखान।

अर्थ- जिसे अनुभव का ज्ञान है उसके लक्षणों के बारे में क्या कहा जाय। वह साधु असाधु में भेद नहीं देखता है। वह समदर्शी होता है। अतः उसका वर्णन क्या किया जाय।

दूजा हैं तो बोलिये, दूजा झगड़ा सोहि दो अंधों के नाच मे, का पै काको मोहि।

अर्थ- यदि परमात्मा अलग अलग हों तो कुछ कहाॅ जाय। यही तो सभी झगड़ों की जड़ है। दो अंधों के नाच में कौन अंधा किस अंस अंधे पर मुग्ध या प्रसन्न होगा?

नर नारी के सूख को, खांसि नहि पहिचान त्यों ज्ञानि के सूख को, अज्ञानी नहि जान।

अर्थ- स्त्री पुरुष के मिलन के सुख को नपुंसक नहीं समझ सकता है। इसी तरह ज्ञानी का सुख एक मूर्ख अज्ञानी नहीं जान सकता है।

निरजानी सो कहिये का, कहत कबीर लजाय अंधे आगे नाचते, कला अकारथ जाये।

अर्थ- अज्ञानी नासमझ से क्या कहा जाये। कबीर को कहते लाज लग रही है। अंधे के सामने नाच दिखाने से उसकी कला भी व्यर्थ हो जाती है। अज्ञानी के समक्ष आत्मा परमात्मा की बात करना व्यर्थ है ।

ज्ञानी युक्ति सुनाईया, को सुनि करै विचार सूरदास की स्त्री, का पर करै सिंगार।

अर्थ- एक ज्ञानी व्यक्ति जो परामर्श तरीका बतावें उस पर सुन कर विचार करना चाहिये। परंतु एक अंधे व्यक्ति की पत्नी किस के लिये सज धज श्रृंगार करेगी।

बूझ सरीखी बात हैं, कहाॅ सरीखी नाहि जेते ज्ञानी देखिये, तेते संसै माहि।

अर्थ- परमांत्मा की बातें समझने की चीज है। यह कहने के लायक नहीं है। जितने बुद्धिमान ज्ञानी हैं वे सभी अत्यंत भ्रम में है।

लिखा लिखि की है नाहि, देखा देखी बात दुलहा दुलहिन मिलि गये, फीकी परी बरात।

– परमात्मा के अनुभव की बातें लिखने से नहीं चलेगा। यह देखने और अनुभव करने की बात है। जब दुल्हा और दुल्हिन मिल गये तो बारात में कोई आकर्षण नहीं रह जाता है।

भीतर तो भेदा नहीं, बाहिर कथै अनेक जो पाई भीतर लखि परै, भीतर बाहर एक।

अर्थ- हृदय में परमात्मा एक हैलेकिन बाहर लोग अनेक कहते है। यदि हृदय के अंदर परमात्मा का दर्शण को जाये तो वे बाहर भीतर सब जगह एक ही हो जाते है।

भरा होये तो रीतै, रीता होये भराय रीता भरा ना पाइये, अनुभव सोयी कहाय।

अर्थ- एक धनी निर्धन और निर्धन धनी हो सकता है। परंतु परमात्मा का निवास होने पर वह कभी पूर्ण भरा या खाली नहीं रहता। अनुभव यही कहता है। परमात्मा से पुर्ण हृदय कभी खाली नहीं-हमेशा पुर्ण ही रहता है।

ज्ञानी तो निर्भय भया, मानै नहीं संक इन्द्रिन केरे बसि परा, भुगते नरक निशंक।

अर्थ- ज्ञानी हमेशा निर्भय रहता है। कारण उसके मन में प्रभु के लिये कोई शंका नहीं होता। लेकिन यदि वह इंद्रियों के वश में पड़ कर बिषय भोग में पर जाता है तो उसे निश्चय ही नरक भोगना पड़ता है।

आतम अनुभव जब भयो, तब नहि हर्श विशाद चितरा दीप सम ह्बै रहै, तजि करि बाद-विवाद।

अर्थ- जब हृदय में परमात्मा की अनुभुति होती है तो सारे सुख दुख का भेद मिट जाता है। वह किसी चित्र के दीपक की लौ की तरह स्थिर हो जाती है और उसके सारे मतांतर समाप्त हो जाते है।

आतम अनुभव सुख की, जो कोई पुछै बात कई जो कोई जानयी कोई अपनो की गात।

अर्थ- परमात्मा के संबंध में आत्मा के अनुभव को किसी के पूछने पर बतलाना संभव नहीं है। यह तो स्वयं के प्रयत्न,ध्यान,साधना और पुण्य कर्मों के द्वारा ही जाना जा सकता है।

अंधे मिलि हाथी छुवा, अपने अपने ज्ञान अपनी अपनी सब कहै, किस को दीजय कान।

अर्थ- अनेक अंधों ने हाथी को छू कर देखा और अपने अपने अनुभव का बखान किया। सब अपनी अपनी बातें कहने लगें-अब किसकी बात का विश्वास किया जाये।

आतम अनुभव ज्ञान की, जो कोई पुछै बात सो गूंगा गुड़ खाये के, कहे कौन मुुख स्वाद।

अर्थ- परमात्मा के ज्ञान का आत्मा में अनुभव के बारे में यदि कोई पूछता है तो इसे बतलाना कठिन है। एक गूंगा आदमी गुड़ खांडसारी खाने के बाद उसके स्वाद को कैसे बता सकता है।

ज्यों गूंगा के सैन को, गूंगा ही पहिचान त्यों ज्ञानी के सुख को, ज्ञानी हबै सो जान।

अर्थ- गूंगे लोगों के इशारे को एक गूंगा ही समझ सकता है। इसी तरह एक आत्म ज्ञानी के आनंद को एक आत्म ज्ञानी ही जान सकता है।

ज्ञानी मूल गंवायीयाॅ आप भये करता ताते संसारी भला, सदा रहत डरता।

अर्थ- किताबी ज्ञान वाला व्यक्ति परमात्मा के मूल स्वरुप को नहीं जान पाता है। वह ज्ञान के दंभ में स्वयं को ही कर्ता भगवान समझने लगता है। उससे तो एक सांसारिक व्यक्ति अच्छा है जो कम से कम भगवान से डरता तो है।

वचन वेद अनुभव युगति आनन्द की परछाहि बोध रुप पुरुष अखंडित, कहबै मैं कुछ नाहि।

अर्थ- वेदों के वचन,अनुभव,युक्तियाॅं आदि परमात्मा के प्राप्ति के आनंद की परछाई मात्र है। ज्ञाप स्वरुप एकात्म आदि पुरुष परमात्मा के बारे में मैं कुछ भी नहीं बताने के लायक हूँ।

ज्ञानी भुलै ज्ञान कथि निकट रहा निज रुप बाहिर खोजय बापुरै, भीतर वस्तु अनूप।

अर्थ- तथाकथित ज्ञानी अपना ज्ञान बघारता है जबकी प्रभु अपने स्वरुप में उसके अत्यंत निकट हीं रहते है। वह प्रभु को बाहर खोजता है जबकी वह अनुपम आकर्षक प्रभु हृदय के विराजमान है।

अंधो का हाथी सही, हाथ टटोल-टटोल आंखों से नहीं देखिया, ताते विन-विन बोल।

अर्थ- वस्तुतः यह अंधों का हाथी है जो अंधेरे में अपने हाथों से टटोल कर उसे देख रहा है । वह अपने आॅखों से उसे नहीं देख रहा है और उसके बारे में अलग अलग बातें कह रहा है । अज्ञानी लोग ईश्वर का सम्पुर्ण वर्णन करने में सझम नहीं है ।

कबीर गाफील क्यों फिरय, क्या सोता घनघोर तेरे सिराने जाम खड़ा, ज्यों अंधियारे चोर।

अर्थ- कबीर कहते है की ऐ मनुष्य तुम भ्रम में क्यों भटक रहे हो? तुम गहरी नीन्द में क्यों सो रहे हो? तुम्हारे सिरहाने में मौत खड़ा है जैसे अंधेरे में चोर छिपकर रहता है

कबीर टुक टुक देखता, पल पल गयी बिहाये जीव जनजालय परि रहा, दिया दमामा आये।

अर्थ- कबीर टुकुर टुकुर धूर कर देख रहे है। यह जीवन क्षण क्षण बीतता जा रहा है। प्राणी माया के जंजाल में पड़ा हुआ है और काल ने कूच करने के लिये नगारा पीट दिया है।

कबीर पगरा दूर है, आये पहुचै सांझ जन जन को मन राखती, वेश्या रहि गयी बांझ।

अर्थ- कबीर कहते है की मुक्ति बहुत दूर है और जीवन की संध्या आ चुकी है। वह प्रत्येक आदमी का मन पूरा कर देती है पर वेश्या स्वयं बांझ ही रह जाती है।

कबीर हरि सो हेत कर, कोरै चित ना लाये बंधियो बारि खटीक के, ता पशु केतिक आये।

अर्थ- कबीर कहते है की प्रभु से प्रेम करो। अपने चित्त में कूड़ा कचरा मत भरों। एक पशु कसाई के द्वार पर बांध दिया गया है-समझो उसकी आयु कितनी शेष बची है।

कबीर सब सुख हरि है, और ही दुख की राशि सुा, नर, मुनि, जन,असुर, सुर, परे काल की फांसि।

अर्थ- केवल प्रभु समस्त सुख देने वाले है। अन्य सभी दुखों के भंडार है। देवता, आदमी, साधु, राक्षस सभी मृत्यु के फांस में पड़े है। मृत्यु किसी को नहीं छोड़ता। हरि ही सुखों के दाता है।

कागा काय छिपाय के, कियो हंस का भेश चलो हंस घर आपने, लेहु धनी का देश।

अर्थ- कौये ने अपने शरीर को छिपा कर हंस का वेश धारण कर लिया है। ऐ हंसो-अपने घर चलो। परमात्मा के स्थान का शरण लो। वही तुम्हारा मोक्ष होगा ।

काल जीव को ग्रासै, बहुत कहयो समुझाये कहै कबीर मैं क्या करुॅ, कोयी नहीं पतियाये।

अर्थ- मृत्यु जीव को ग्रस लेता है-खा जाता है। यह बात मैंने बहुत समझाकर कही है। कबीर कहते है की अब मैं क्या करु-कोई भी मेरी बात पर विश्वास नहीं करता है।

काल छिछाना है खड़ा, जग पियारे मीत हरि सनेही बाहिरा, क्यों सोबय निहचिंत।

अर्थ- मृत्यु रुपी बाज तुम पर झपटने के लिये खड़ा है। प्यारे मित्रों जागों। परम प्रिय स्नेही भगवान बाहर है। तुम क्यों निश्चिंत सोये हो । भगवान की भक्ति बिना तुम निश्चिंत मत सोओ।

काल हमारे संग है, कश जीवन की आस दस दिन नाम संभार ले,जब लगि पिंजर सांश।

– मृत्यु सदा हमारे साथ है। इस जीवन की कोई आशा नहीं है। केवल दस दिन प्रभु का ना

काल काल सब कोई कहै, काल ना चिन्है कोयी जेती मन की कल्पना, काल कहाबै सोयी।

अर्थ- मृत्यु मृत्यु सब कोई कहते है पर इस मृत्यु को कोई नहीं पहचानता है। जिसके मन में मृत्यु के बारे में जैसी कल्पना है-वही मृत्यु कहलाता है।

कुशल कुशल जो पूछता, जग मे रहा ना कोये जरा मुअई ना भय मुआ, कुशल कहाॅ ते होये।

अर्थ- हमेशा एक दूसरे से कुशल-कुशल पूछते हो । जब संसार में कोई नहीं रहा तो कैसा कुशल। बुढ़ापा नहीं मरा,न भय मरा तो कुशल कहाॅ से कैसे होगा।

काल पाये जग उपजो, काल पाये सब जाये काल पाये सब बिनसि है, काल काल कंह खाये।

अर्थ- अपने समय पर सृष्टि उत्पन्न होती है। अपने समय पर सब का अंत हो जाता है। समय पर सभी जीचों का विनाश हो जाता है। काल भी काल को-मृत्यु भी समय को खा जाता है।

काल फिरै सिर उपरै, हाथौं धरी कमान कहै कबीर गहु नाम को, छोर सकल अभिमान।

अर्थ- मृत्यु हाथों में तीर धनुष लेकर सबों के सिर पर चक्कर लगा रही है। समस्त घमंड अभिमान छोड़ कर प्रभु के नाम को पकड़ो-ग्रहण करो-तुम्हारी मुक्ति होगी।

आखरी शब्द

हेलो दोस्तों मुझे जरूर विश्वास है कि आपको हमारे द्वारा बनाया गया यह आर्टिकल जरूर पसंद आया होगा हमारे लिए कोई भी सुझाव या संदेश हो तो हमें नीचे कमेंट करके जरूर बताएं आपका हर एक कमेंट हमारे लिए बेहद उपयोगी है धन्यवाद

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कबीर दास जी के 20 प्रसिद्ध दोहे?

१. पोथी पोथी के जग मुआ पंडित भया न कोय ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय

२. बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय जो खुद में झांकने आपने मुझसे बुरा न कोय

३कबीर खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर ना कहो इसको दुश्मन ना कहो उसको ; गैर

कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय जो खावे बार आए जो पावे बोर आए

संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे?

जाता है सो जान दे, तेरी दासी ना जाये दरिया केरे नाव ज्यों, घना मिलेंगे आये।

चहुॅ दिस ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हथियार सब ही येह तन देखता, काल ले गया मार।

चलती चाकी देखि के, दिया कबीरा रोये दो पाटन बिच आये के, साबुत गया ना कोये।

गुरु जहाज हम पाबना,गुरु मुख पारि पराय गुरु जहाज जाने बिना, रोबै घट खराय।

कबीर दास जी के 5 दोहे?

घड़ी जो बाजै राज दर, सुनता हैं सब कोये आयु घटये जोवन खिसै, कुशल कहाॅ ते होये।

चाकी चली गुपाल की, सब जग पीसा झार रुरा सब्द कबीर का, डारा पात उखार।

तरुवर पात सों यों कहै, सुनो पात एक बात या घर याही रीति है, एक आवत एक जात।

निश्चल काल गरासही, बहुत कहा समुझाय कहे कबीर मैं का कहुॅ, देखत ना पतियाय।

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